”काम” के बिना राम नहीं और ”राम” के बिना काम नहीं…”तन-मन” और ”प्राण-आत्मा” के संयोजन से जीवन चलता है…तन-मन-प्राण की अपनी जरुरत भी है…समय विशेष में ”सुधीजन” हो या ”साधक” ”साधू” हो या ”सिद्ध” सभी अपनी इस आवश्यकता को पूरा कर ही लेते है……
आदर्श अपनी जगह रह जाता है ,रह भी जायेगा ,क्योकि जीवन आदर्शो पर नहीं चलता…बड़े से बड़े आदर्श के प्रदर्शन करने वाले जीवन को वैसे ही जी लेते है ,जैसे एक आम आदमी और यदि नहीं जिए तो ”काम” विकृत हो ”वासना” का रूप ले लेता है, जिसमे एक आम आदमी से लेकर सुधीजन, साधक, साधू और कहे जाने वाले सिद्ध तक भी आ जाते है…….
इसलिए ”सयंमित” हो अपने तन-मन के आवश्यकता की पूर्ति सहज ही कर लेनी चाहिए…”तन-मन” की ये पिपासा प्राण आत्मा अपने ”राम” से बुझती है ,इसलिए ”काम-राम…राम-काम”…एक दूजे के संयोजन के बिना जीवन आनंद नहीं…इसलिए निर्भीक हो अपनी कामेच्छा पूर्ण कर सहज ,सरल हो अपने ”राम” में विलीन हो जाना चाहिए… जिससे ”सामाजिक-समरसता” बनी रहे………