एक व्यक्ति विशेष की पूरी जिंदगी ”तन-मन” के पोषण हेतु ”धन” कमाकर संसाधनों को जुटाने में ही समाप्त हो जाती है…वह भूल जाता है कि यह सब कुछ जिसके बल पे करता है ”स्वांस-प्राण-आत्मा” के ,उसकी शरण कभी नहीं जाता…हाँ अगर जाता भी है स्वांस की शरण ,तब जब ”दमा” हो जाता है ,जाता भी है तब जब ”कोमा” में होता है……
हम कब होश सँभालते है ..? जब सँभालने लायक ही नहीं होते…क्यों अधूरी जिंदगी जीते है हम…? क्यों जीवन के एक भाग को ही जी पाते है हम…? ”तन-मन” के पोषण में ”धन” जरूरी है ,जीवन का एक भाग …पर ”प्राण-आत्म” के पोषण में ”परमात्मा” जरूरी है ,जीवन का दूसरा भाग…ज्यादातर लोग पहले भाग को ही जीकर समाप्त हो जाते है…बिरले ही शरणागत होते है उसके, जिसके बल पे सब होता है ,”प्राण-आत्म” दर्शन कर जीवन के ”परम-आनंद” को भी जीते है……..